राक्खोश : समान्तर भारतीय सिनेमा का नया चहेरा

हाल ही मैं भारतीय समांतर सिनेमा के ५० साल (१९६९ से २०१९) पुरे हुए...l  मिंट अखबार ने (४ मई २०१९) Fifty Years of Alternative Cinema शीर्षक तले बृहद लेख किया..l जब यह लेख हुआ या हो रहा था, तब एक ऐसी फिल्म आयी जिसे हम ‘समान्तर भारतीय सिनेमा का नया चहेरा’ कह सकते है..l मैंने यहाँ समान्तर शब्द इसलिए भी इस्तमाल किया है कि, यह फिल्म और उसकी कहानी आम फिल्म या उनकी कहानी से हटकर है..l हो सकता है किसीको यह समान्तर सिनेमा न भी लगे..l मराठी साहित्य में होरर कहानिओं के लिए बहुख्यात नारायण धाराप की लघुकथा “पेशंट नं ३०२” पर आधारित यह फिल्म रक्खोश” की कहानी एक साथ अनेक स्तर पर चलती है..l इससे पहले नारायण धाराप की अन्य एक लघुकथा पर आधारित फिल्म “तुम्बाड” बन चुकी है..l

भारत की पहली पॉइंट ऑफ़ व्यू (POV) फिल्म राक्खोश शुरुआत से ही दर्शको को अपने साथ चलने के लिए प्रेरित करती है..l या यूँ कह सकते है की दर्शक को अपने साथ खींचकर ले जाती है..! “सब कहेते है अंधेरा काफी डरावना होता है, पर मुझे तो अंधेरे में ही अच्छा लगता है..l पता नहीं लोग अंधेरे से उतना डरते क्यूँ है..?”  फिल्म की शुरुआत मैं ही आता यह वोईस ओवर और फिर ३६० डीग्री घुमता कमरा, साथ उठता डरावना म्युज़िक एक पंच के साथ नया मोड़ लेता है और शुरू होता है  पॉइंट ऑफ़ व्यू (POV) फिल्म का सब्जेक्टिव शॉट..l यहाँ हमें द्रश्यांकन के साथ Light & Shadow का भी कमाल देखने को मिलता है..l केमरा एक व्यक्ति का पीछा कर रहा है, और वो भाग रहा है..l एक मिनट की भागादौड़ी के बाद कातिल वार और चीख..! स्क्रीन पर खुनी लाल शब्दों मैं : राक्खोश
“तुमने कुमार जॉन को देखा क्या..? सुबह से ढूंढ रहा हूँ..l” पॉइंट ऑफ़ व्यू (POV) केरेक्टर की पहली आवाज और मेंटल अस्पताल का वोर्ड..l अजीब हरकत करते किरदार..l कहानी का सूत्र यहीं से बुनना शुरू हो जाता है..l कुछ पल बाद लोहे के दरवाजे के पीछे छिपा कुमार जॉन आवाज देता है..l   “बिरसा..!” कुमार जॉन है संजय मिश्रा..l बिरसा हमारा केमरा और पॉइंट ऑफ़ व्यू (POV) केरेक्टर..l आप कुछ ऐसा तो नहीं सोच रहे है न कि मैं आपको पूरी फिल्म की कहानी सुनानेवाला हूँ..? सोचना भी मत..l क्यूंकि मैं ऐसा कुछ भी नहीं करनेवाला..l पूरी फिल्म देखनी है तो Netflix पर जाकर देखो..l राक्खोश के बारे में मैं कितना भी लिखूं, आप को वो मज़ा नहीं आएगा जो आप चाहते हो..l उसके लिए आपको खुद ही फिल्म देखनी होगी..l और वो भी ध्यान से..l
मूलत: यह मेंटल अस्पताल में रह रहे कुमार जॉन और बिरसा की कहानी है..l जिनका मानना है की राक्खोश आकर बारी-बारी से सब को मार डालेगा..! २००० मेंटल और ४० कर्मचारी..! बहोत नाइंसाफी है यह..! यहाँ मेंटल अस्पताल मैं मानसिक रूप से बीमार मरीजों के हालत भी कहानी का एक किरदार है..l जब NGOवाले आते है तब मरीजों के साथ कैसा व्यवहार होता है और बाकि दिनों में कैसा..? मरीजों को मारना पिटना और गाली-गलोच..! इन सभी के बिच कुमार जॉन के मन में चल रही उथल-पुथल को तिन-चार फ्रेम के इंटरकट मैं दिखाकर निर्देशक ने मनोविज्ञानिक तरीके से अपनी बात कहने के लिए संकलन (editing) और द्रश्यात्मक असर (visual effects) का विनियोग किया है..l एक फ्लेश के साथ प्रस्तुत होते यह द्रश्य पूरी फिल्म में आते है, जो फिल्म की usp है..l
नारायण धाराप की कहानी “पेशंट नं ३०२” पर आधारित यह फिल्म के फ़िल्मी पहलु की बात करें तो संजय मिश्रा, प्रियंका बोस, तनिष्ठा चेटर्जी, बरुन चंदा, अश्व्थ भट्ट, सोनामोन जयंत गाडेकर और अतुल मोहिले इस फिल्म के प्रमुख कलाकार है..l कथा किरण क्षिरसागर और पटकथा और संवाद श्रीविनय सालियान के है..l डिरेक्टर ऑफ़ फोटोग्राफी : Basile Pierrat, संकलन : दिनेश गोपाल पुजारी, संगीत : अशीम केम्सन और निर्देशक : अभिजित कोकाटे और श्रीविनय सालियान है..l
एक साथ अनेक स्तर पर चलती इस फिल्म की कहानी अपने आँचल में कई धागे पिरोकर आगे बढती है..l बिरसा की कहानी..l उसका वर्तमान और पूर्व..l बिरसा के मन में मचलते उमड़ते ख्याल..l तो कुमार जॉन की भी अपनी कहानी है..l कई द्रश्य में “मेरी बेटी” का पुनरोच्चार और वैसे ही बिरसा द्वारा “नकली बेटी” का बार-बार बोलना, दर्शक को मनोवैज्ञानिक तरीके से सोचने और समझने के लिए प्रेरित भी करता है और मजबूर भी..l
राक्खोश को फिल्म निर्माण की प्रक्रिया के अनुसंधान में देखे तो दिग्दर्शन, पटकथा, सिनेमेटोग्राफी, संकलन, अभिनय और background music इतना प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया है की सब एकदूसरे के पूरक लगते है..l “बहार तो बहोत शोरगुल..l हा हम है थोड़े मेंटल, फिर भी रहते है जेंटल..i हम जैसे है बढ़िया है, आये है एक्सिदेंटल” जैसा गीत कहानी का प्रभाव बढ़ता है और बहाव भी..l डॉ. इद्रीस (बरुन चंदा), रिध्धिमा सिंघ (प्रियंका बोस), नर्स कालिमा (सनोमानी जयंत), शोमा शेखरी (तनिष्ठा मुकर्जी), स्वप्निल (अतुल महाले), डॉ. पार्थो (अस्वथ भट्ट), बिरसा शेखरी (नामित दास) के साथ कुमार जॉन (संजय मिश्रा) का अभिनय लाजवाब है..l पर सबसे ऊपर निर्देशकों की टीम, सिनेमेटोग्राफी, संकलन और पोस्ट-प्रोडक्शन है..l मानसिक रूप से बीमार बिरसा के बारे में जब डॉक्टर, नर्स, शोमा और रिध्धिमा बात कर रहे है, तब मानसशास्त्री sigmund freud की किताब से बिरसा का खेलना मात्र संयोग नहीं, पर अप्रत्यक्ष रूप से बात को प्रत्यक्ष करने का तरीका है..l
मैंने जब फिल्म के फिल्म के Executive Producer प्रशेन क्यावाल से टेलीफोनिक बात की तब उन्होंने बताया की हमने डिरेक्टर ऑफ़ फोटोग्राफी : Basile Pierrat का चयन यूट्यूब पर उनका म्यूजिकल वीडियो “कल्कि – वाराणसी” देखर किया था..l जिसमें उन्होने कई पॉइंट ऑफ़ व्यू (POV) शॉट लिए है..l उन्हों ने यह भी बताया की फिल्म को जान-बुज़  कर complicated बनाया गया है..l फिल्म में दिखाए गए प्रत्येक द्रश्य और प्रोपर्टी जैसे की ताश के पत्ते का चयन विशेष सोच और कहानी के अनुसार किया गया है..l दर्शक को यह story layers को समजने में इनका उपयोग करना चाहिए..l हम यूँ भी कह सकते है की फिल्म की complicity को सुलझाने के लिए यह काम आयेंगे..l
अंत मैं “सब कहेते है अँधेरा काफी डरावना होता है, पर मुझे तो अँधेरे मैं ही अच्छा लगता है..l पता नहीं लोग अँधेरे से इतना डरते क्यूँ है..? शायद लोग अँधेरे से नहीं, अपने अकेलेपन से डरते है..l पर मैं..? मैं अब नहीं डरता..l मैं अकेला नहीं हूँ ना..l”
रक्खोश समान्तर भारतीय सिनेमा जिसे alternative cinema भी कहा गया है, उस सिनेमा का नया चहेरा है..l प्रशेन क्यावाल जी ने सच ही कहा था : “आपको यह फिल्म कम से कम तीन बार देखनी चाहिए..l” मैं उस बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ..l एकबार में आप फिल्म को पूरी तरह से समज नहीं पाएंगे..l और बार-बार देखने से हर बार कोई नया द्रष्टिकोण नया परिमाण आपको दिखाई देगा..l क्यूंकि यहाँ पेशंट गायब नहीं शु..अ..अ.. होते है..!
Dr. Tarun Banker
Filmmaker & Researcher
9228208619 / tarunkbanker@gmail.com